प.पू.ब्रहमीभूत श्री सीताराम महाराज टेंब्ये जी का जन्म माणगांव में उनके घर में चैंत्र शुध्द पंचमी के दिन हुआ।श्रीप.प.वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज के वे छोटे भाई थे। सबसे छोटे होने से सबके लाडले थे।स्वामी महाराज और सीताराम महाराज दोंनो की उम्र में लगभग २०-२२ वर्षोका फर्क था।
बचपन में उन्हे भल्या कहा जाता था। वासुदेव शास्त्री उनसे बहुत प्यार करते। उन्हे दुध-चावल बहुत भाता था। कभी घर में दुध न मिलने पर वे दुध के लिए जिद करते। घर में दुध देनेवाली गायनथी इसलिए कभी कभी बाहर से लाया दुध समाप्त होता ऐसे वक्त भलोबा का बालहठ पूरा करने के लिए वासुदेवशास्त्री जी अथवा उनकी माँ पडोसिंयों से दुध लाकर उनका हठ पूरा करते। दुध न मिलने पर भूखे रह जाते थे।
बचपन के बाल स्वाभाव के नुसार वे अन्य बच्चों के साथ खेलने जाते तब घर लौटने का ध्यान भी उन्हे नही रहता। भोजन के लिए वासुदेवशाश्त्री जी अथवा घर के अन्य लोग उन्हे ढूँढकर ले आते। छोटे बच्चे नीडर होते हुई भी हौआ (डरावा) आया कहने पर डरते उसी प्रकार भलोबा को डर दिखाकर घर लाया जाता।
आठवे वर्ष में श्री वासुदेव शास्त्री जीने ही उनका यज्ञपवीत संस्कार किया। इसके बाद वासुदेवशाश्त्री जी उन्हें नित्यसंध्या,पुरुष सुक्तादि सुक्त,देव पूजा,वैश्व देव आदि वेदाध्ययन करने सीखाते थे।
बचपन में भलोबा को गाने और तबला बजाने में रुचि थी। कहीभी भजन होता तो वे वहॉँ जाकर बैठते, तबला बजाते उनकी गाने, बजाने मे दिलचस्पी देखकर श्री वासुदेव शास्त्रीजी ने एक संगीत अध्यापक की (वेतन देकर)नियुक्ति की थी। आगे चलकर वे अच्छे तबलची और गायक बन गए।
भलोबा को बचपन से ही शान शौक से रहने में दिलचस्पी थी। अच्छे-अच्छे कपडे पहनना भाता था। बचपन से ही धोती,अँगरखा (चपखन) टोपी तथा उत्तरीय ऐसा पहनावा रहता। उनकी यह रुचि देखकर वासुदेवशास्त्री जी उनके लिए बेल बूटे का अँगरखा,नक्काशी की हुई तथा गुच्छे और रंगिन टिकीया(चकती) से कलाबत्तू की टोपी बनवाकर लाते।वह टोपी और पोशाक पहनकर भलोबा शान से घुमते। इससे वे बहुत खुश हो जाते। भलोबा स्वामी महाराज के बीना वे नहीं रहते। घर के अन्य सदस्थों से वे वासुदेव शास्त्री जी से बहुत स्नेह रखते। उन्हें वे गुरु ही मानते थे। दोंनो का एक दुसरे बिना दिल नही लगता था।
श्री.प.प.वासुदेवशास्त्री जी ने दत्तमंदिर की स्थापना करने के बाद वहाँ चलने वाले नियमित पूजा –अर्चा,भंडारा,पालकी आदि कार्यक्रम में भलोबा बडे आत्मीयता,स्नेह और निष्टा के साथ स्वामीजी की मदद करते थे।
वासुदेवशास्त्री के साथ नृसिंहवाडी से श्री दत्त महाराज सात वर्षो तक माणगांव में रहने के लिए आए थे।सात वर्ष पूरे होने के बाद वासुदेवशास्त्री जी का दृंष्टांत हुआ कि आज पूजा नैवेद्य के बाद उत्तर दिशा की ओर जाना है।यहं खबर तेजी से चारों ओर फैल गई। स्वामीजी ने अपनी माँ से बताया। सुनकर उसे बहुत बुरा लगा ,रुलाई आई,स्वामीजी ने दत्त महाराज की आज्ञा होने से जाना अनिवार्य है। कहकर माँ को समझाया। भलोबा यह खबर सुनकर रोने लगा और स्वामीजी के साथ जाने के लिए जिद करने लगा।उस समय उसकी उम्र १२ते१५ वर्ष की थी। बचपन से उनके सभी बालहट पूरे किए थे परंतु यह हठ पूरा करने लायक नहीं था। तब स्वामीजी ने उससे कहा, तुम अभी छोटे हो, और तुम्हे हमेशा दुध-चावल चाहिए,अच्छी पोशाक चाहिए, वह कौन देगा।मैं पैदल और नंगे पैर (जूते के बिना) यात्रा करुँगाः और मेरी यात्रा बहुत दुर्धर होगी। तुम्हारे लिए वह असल होगी। तुम घर में ही रहो और माँ की सेवा करो आदि उपदेश परक बातें बताकर उसे समझाया और पत्नी के साथ यात्रा के लिए लौट पडे।
श्री दत्त की आज्ञा से वासुदेव शास्त्रीजी घरसे जाने के कारण सीताराम जी को बहुत बुरा लगा। परंतु गुरु-आज्ञा समझकर वे मातृ सेवा के लिए घर में रहे। पहले की तरह वे हरी उर्फ दत्ताराम के साथ देव पूजा,नैवेद्य,वैश्वदेव शाम को धुपारती,पचंपदी आदि पद भजन गाना सब नियमित रुप से शुरु था परंतु उनका मन वासुदेव वासुदेवशास्त्री जी के दर्शन करने ललचाया था।
गुरु आज्ञा से मातृ सेवा के लिए सीताराम माणगांव में थे पर वासुदेव दर्शन की उनकी आस कम नहीं हुई।
किसी प्रकार पाँच वर्षो तक रहकर,माँ से बार बार बताकर श्री वासुदेव दर्शन की इजाजत पाई।
एक दिन अच्छी पोशाक पइनकर,पडोसियों से बताकर कि मैं बाहर जा रहा हूँ,सीताराम महाराज चले गए। जगंल की ओट में जाने पर कपडे, टोपी सब फेंककर केवल लोटा, लंगोट तथा दंड के साथ सीताराम जी पैदल (जूते के बिना)ही चले। वे नरसोबावाडी आए। वहाँ उनकी भेंट नारायण दिक्षित आदि से हुई। उन्होंने उनका स्वागत किया। वहाँ पहुँचने पर उज्जयिनी की ओर प्रयाण करने की खबर मिली, सीताराम महाराज उज्जयिनी जाने लौट पडे। वहाँ जाने पर स्वामिजी के निवास (स्थान) के संबंध में किसी से भी कोई जानकारी नहीं मिली कि इस वक्त स्वामी कहाँ है। वहाँ सीताराम महाराज जी को पइचाननेवाला कोई नहीं था। भलोबा वहाँ से ग्वाल्हेर पहुँचे। राजाश्रय के कारण वहाँ वेद –पाठशाला एँ थी। वहाँ का ब्राह्मण वर्ग भी सनातन वर्णाश्रम का आचरण करने वाला था। यह देखकर वे खुश हो गए। इस धर्म क्षेत्र में रहकर कुछ दिनों तक शास्त्र अध्ययन करने का विचार उनके मन में आया। वहाँ के अध्यांपकों से मिलकर उन्होने अपना विचार व्यक्त किया। वहाँ के अध्यांपकों ने वेद पाठशाला में रहने का प्रबंध किया। वहाँ रहकर हररोज स्नानसंध्या, जपजाप्य, गुरुचरित्र वाचन आदि नित्यक्रम के बाद प्रवित्रता से उन्होंने गुरुजी के पास अध्ययन शुरु किया।१२ वर्षों का पाठ्यक्रम केवल ३ वर्षों में पूरा किया। गुरुजी भी खुश हुए। और कुछ दिनों तक वही रहकर और ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए गुरुजी ने सुझाया। परंतु व्यहारिक प्रेम या पुरुषार्थ को महत्त्व न देने वाले सीताराम महाराज अपमे अंतिम मंजिल से डटे रहे और गुरुजीसे बिदाई लेकर वासुदेव यति दर्शन की प्यास से वहाँ से चल पडे।
कई दिनों तक जंगल में अकेले रहकर योगाभ्यास किया। लेकिन हठयोग अध्ययन सदगुरु के सामिप्य में ही उचित है ऐसा मानकर आगे चले गए।
सुख दुख, ठंडी हवा, धुप वर्षा की परवाह किए बिना नंगे पाँव चलते-चलते “शब्द परेच निष्णात ब्रह्ममूर्ति भगवान वासुदेव” निरंतर आँखों के सामने रखकर गंगा किनारे मठों मंदिरों में श्री वासुदेव यती महाराज की खोज करते करते हरिद्वार से ब्रह्मावर्त पहुँचे।
वहाँ पहुँचकर उन्होंने वासुदेव शास्त्री जी के बारे में पूछताछ की। श्री राम मंदिर में उनके प्रवचन शुरु है –ऐसी खबर मिली। महाराज श्री राम मंदिर में ही रहते। दुसरे दिन सीताराम महाराज मंदिर में वासुदेवानंद सरस्वती जी से मिलने गए। उस वक्त प्रवचन शुरु था। वे मंदिर के एक कोने में बैठे रहे। प्रवचन पूर्ण होने के बाद महाराज उनसे मिले बिना ही अपने मठ में चले गए। दुसरे दिन और तीसरे दिन भी वैसे ही हुआ। नहाराज उन्हें देखते, वे महाराज को देखते। चौथे दिन स्वयं महाराज ने उन्हें बुलाया। उनकी और घर वालों की पूछताछ की। माँ के देहांत की बात समझ गई। उन्हें बुरा लगा,आँखों मे आँसू आए। मैं स्नान करके आता हूँ, कहकर वे नदी पर गए। माँ के लिए स्नान कर आए। उसके बाद उन्होंने सीताराम महाराज जी को अपने पास ही रखा। उनके ‘आन्हिक’ तथा प्रवचन सुनने का कार्यक्रम हररोज चलता।
एक दिन सीताराम महाराज शाम के समय शिरोळ के शंकरराव कुलकर्णी के साथ सायंसंध्या करने नदी पर गए थे। शिरोळ के शंकरराव कुलकर्णी वेदांतशास्त्र का अध्ययन करने वासुदेवशास्त्री जी के पास ब्रह्मावर्त गए थे। सीताराम महाराज और कुलकर्णी दोनों स्वामीजी से वेदांत पाठ का अध्ययन करते। उस दिन एकाएक तुफान शुरु हुआ। संध्या करते समय दोनों तुफान में फँस गए। उस तुफान को वहाँ ‘अंधी’ कहते हैं। अंधी में फँसे आदमी के नाक-मुँह में, कानों-आँखों में रेत घुसकर दम घुटकर आदमी मर जाता है और तुफानी हवा के साथ उडकर गंगा प्रवाह में अथवा कहीं भी गिर जाता है। इस प्रकार अंधी का परिणाम मनुष्य को भुगतना पडता है। ऐसे मृत्यू संकट में फँसे सीताराम महाराज और कुलकर्णी उस समय मर जाते परंतु उनके रक्षक श्री वासुदेवानंद सरस्वती जिनपर उनकी अपार श्रद्धा थी और गुरु कृपा से वे संकट मुक्त हा गए।
ब्रह्मावर्त के मुकाम में वासुदेवानंद सरस्वती जी ने सीताराम महाराज को गायत्री पुरश्चरण करने के लिए कहा। सीताराम महाराज ने कहा, आप यहाँ रहेंगे तो मैं गायत्री पुरश्यरण करुगाँ।.इससे महाराज के (एक-के बाद एक संलग्न ऐसे) तीन चातुर्मास्य ब्रह्मावर्त में हुए
सीताराम महाराज जी को यज्ञयाग में बहुत रुचि थी। जहाँ जाते वहाँ वे यज्ञयाग करते। राजूर मुकाम पर उन्होंने संहिता स्वाहाकार किया था। सीताराम महाराज को गुरु महाराज जी ने कहा था, यज्ञ का आरंभ करो, मैं आऊँगा। भक्त मंडली की सहायता से जोरदार तैयारी शुरु थी। ऋग्वेद संहिता स्वाहाकार के लिए विदवान ब्राह्मणों को बुलाया गया था। खुद वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज, दीक्षित स्वामी, गोविंदराव पंडित(क्षिप्रीकर) गांडा महाराज (योगानंद सरस्वती) दाजी शास्त्री टाकळीकर तथा बहुत सारे यति महाराज उपस्थित थे। यह सबसे बडा यज्ञ संपन्न हुआ। दस हजार लोग एक साथ भोजन करते थे। इसी यज्ञ में गुरुशिष्य पंचायतन का छायाचित्र निकाला गया था।
श्री सीताराम महाराज ने आरंभ किया हुआ राजुर का ऋग्वेद संहिता स्वाहाकार पूरा होने पर गुरु महाराज वासुदेवानंद सरस्वती जी वहाँ से निकले सीताराम जी उनके साथ जानेकी प्रार्थना करते थे। तब महाराज ने कहाँ यह फैलाव छोडकर तू कैसे आ सकता हैं? मैं यहाँ रहू तो और लोग आएँगें। यहाँ की हवा बिगड कर लोगोंको परेशानी होगी। तुम यही ठहरो, हम तुम्हें फिर मिलेंगे और तुम्हारी मनोकामनाएँ पूरी करेंगे। इस प्रकार अभिवचन देकर वे चले गये। इसके बाद सीताराम महाराज जी ने राजुर में ही मठ बनाया लोगोंको उपदेश करके वे लोगोंका दुख दुर करने लगे। लोगोंकी व्याधीयों को दुर करने लगे। कभी कभी भक्तोंके अनुरोध पर हिंगोली नरस अथवा अन्य गावोंमे जाते और वापस राजूर लौटते। बाद में वहां की सभी चिजें लोगोंमें बाँट दीं। निरिच्छ मनसे तापी के तट पर बासलींग क्षेत्र में रहने लगे। उस वक्त श्री वासुदेवानंद जी का निवास गरुडेश्वर में था। आषाढ शुद्घ प्रतिपदा के दिन गुरु स्वामी जी ने देह त्याग किया। यह समाचार सुनते ही महाराज के मन पर वज्राघात हुआ। गंगा जाकर स्नान कर आए। और सुन्न मन से बैठे रहे। आँखों से आँसुओं की बाढ बहने लगी। अपने माँ बाप (रक्षक) हमेशा के लिए छोड चले।अब उनसे मिलना नहीं होगा इस विचार से बेचैन हो गए। तुम्हें मै फिर मिलुंगा और तुम्हारी कामनाऍ पुरी करुंगा, इस प्रकार महाराजजीने अभिवचन दिया था। उस वचन का क्या हुआ? महाराज ने मेरी इच्छा पूरी नही की। वे इस वचन को कैसे भुल गये ? उन्होंने मुझपर अनंत उपकार किए और मेरा जीवन सुखमय बनाया था। मै उनके ऋणसे कैसे मुक्त हो जाऊँ ? इन विचारों से उनका मन विषण्ण हुआ। और दस वर्ष आयुर्मान उनकी पत्रिका मे स्पष्ट होनेपर भी उन्होंने इतनी जल्दी देह विसर्जन क्यो किया ? आप “निरामय” आनंद स्वरुप मे बैठकर मुझे दुख के सागर मे धकेल दिया,इसका कारण क्या होगा? मेरा अधिकार नहीं इसलिए उन्होंने मेरी उपेक्षा की? इस प्रकार चिंतन करते सिताराम महाराज तापी नदी के किनारे समय बिताते, घुमते रहे। घुमते हुए वे बारालिंग क्षेत्र मे मुकुंदराज योगी समाधी मंदिर, जो जंगल में है वहॉ अकेले ही बैठने लगे। हमेशा गुरुमहाराज का नामस्मरण कर बैठते। खाना पिना छोड दिया था।
ब्रह्मज्ञानी पुरुष को सामान्य अज्ञानी आदमी की तरह साकार स्वरुप में प्रेम रखना ईश्वर का लक्षण(चिन्ह) माना गया है। गुरु अपने को जल्दी दर्शन नहीं देते इसलिए मन तडपने लगा,अत्यंत व्याकुल होने लगा। अब धीरज छुटने लगा था। वासुदेव वासुदेव——-कंठशोष करके बच्चे के समान रोना शुरु किया और कुछ समय बाद बेहोश हो गए। बेहोशी तो अर्धमरण की ही अवस्था है। इतने में गुरु महाराज गरुडेश्वर से दौडकर आए। और पुकारा, सीताराम, उठो। मैं आया हूँ। आँखें खोलकर मेरी ओर देखो। पुकारने पर नींद से जागृत होने पर मूर्ति सामने खडी थी। मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूँ? ऐसा लगा। इतने में, उन्होंने कहा “ भल्या” सीताराम। तुम होश में हो ना ? फिर मन में संदेह क्यों आया मैंने तुमसे फिर मिलनेका और तुम्हारी इच्छा पूरी करने का वचन दिया नहीं था? उसे पूरा करने के लिए आया हूँ। तुम्हें क्या पूछना है? बताइए, पूछिए। और महाराज जी ने सीताराम जी को गले लगाया। दोनों देव भक्तोंको परमानंद हुआ।
योगी पुरुष जिवित रहने पर जरुरत पडे तो दुसरा देह धारण करता है। देह विसर्जन के बाद ऐसा नहीं किया जाता। लेकिन प.पू.श्री.वासुदेवानंद सरस्वती जी ने गरुडेश्वर में देह विसर्जन करने के बाद भी मेरे लिए आज दुसरा देह या दुसरा अवतार धारण किया। कलियुग में ऐसा अवतार धारण करणे वाले श्री दत्त
भगवान ही है। ५ घटिकाओं तक आत्मबोध उपदेश किया, उनका मन शांत किया और महाराज अदृश्य हुए। श्री सीताराम महाराज ने बचपन से केवल सदगुरु की भक्ती की और ‘स्वयंको सदगुरु का सेवक मानकर, सेवा करता हूँ,’ इसी भावना से सदगुरु संतोषनार्थ सब कार्य किया।
सलोकता, समीपता, स्वरुपता, सायुज्य इसप्रकार चार ‘मोक्ष’ शास्त्र में वर्णित हैं। सामुज्य मुक्ति में पहले तीनों का अंतर्भाव होता है। देह स्थिती में होकर विदेह स्थिति प्राप्त होना ही सायुज्य मुक्ती है।
संतो में देहाभिमान नहीं होता पर दीनाभिमान होने से पीडितों की सेवा करते समय उन्हें लौकिकता की परवाह नहीं होती। व-हाड प्रांत में हिंगोली में हेमराज मुंदडा नाम का मारवाडी साहुकार था। वह श्री वासुदेवानंद सरस्वती स्वामीजी का अनन्य भक्त था। उसने टेंब्ये स्वामीजी की कृपा और आज्ञा से एक सुंदर दत्तमंदिर बनवाया है।
हिंगोली के गुरुभक्तों की प्रार्थना से श्री सीताराम महाराज श्री दत्तजयंत्ती उत्सव के लिए वहाँ आए थे। उत्सव पूरा करके आगे जाने का इरादा था। उसी के अनुसार वे जाने निकले, पर——हेमराज एकाएक बीमार हुए, बहुत पीडित होकर आसन्न मरण हुए। अमीर होने से बहुत सारे रुपए वैद्यों, डाक्टरों के इलाज के लिए खर्च किए परंतु बीमारी हटने के चिह्न नहीं दिख पडे।
सीताराम महाराज जी ने`बहुत से लोगों को दुर्धर पीडा से मुक्त किया था, यह बात हेमराज ने सुनी थी। उन्होंने सीताराम महाराज की शरण में जाने का निश्चय किया।
सेवकों से उन्हें उठाकर सीताराम महाराज के सामने लाया और बिस्तर पर सुलाया। हेमराज असाध्य पीडा से प्रेततुल्य मरणासन्न अवस्था में थे। उन्होंने महाराज की ओर दयनीय दृष्टी से देखा और हाथ जोडकर कहा, दयावंत महाराज मुझ जैसे दीन पर आपकी कृपा होगी तभी मैं गुरु महाराज की सेवा कर सकूँगा वरना परलोक जाऊँगा। इस बीमारी से तुम्हारे बिना मुझे कोई नही बचा सकता। इस प्रकार महाराज जी की अनन्यभाव से प्रार्थना थी।
सुधिय: साधवो लोके नरदेव नरोत्तम: ।
नाभिद सह्यति भूतेभ्यो यर्हिनात्मा कलेवरम् ।।
मनुष्यों से अथवा भगवान से भी जिनका अधिकार ऊँचा है ऐसे सुबुद्ध साधु, संत, महात्मा किसी भी प्राणिमात्रा से द्रोह, ईर्ष्या बिलकुल नहीं रखते। क्योंकि भले ही बुरा कर्म जड देह से होता है। पर वह आत्मा की कृति नहीं होती। इसीलिए संत निवैर (अजातशत्रु) बुद्धी के होते है, ऐसा व्यास कहते है। हेमराज की दुखी, दीन अवस्था देखकर और दीनवाणी सुनकर श्री सीताराम महाराज का मन पिघल गया, वे घटपटाए और उनकी ओर देखकर करुणामय दृष्टि से और मिठी बोली से उनका समाधान किया, धीरज बँधाया। महाराज बोले, तुमने मुझसे जो प्रार्थना की, वह हम दोनों के रक्षक श्री वासुदेवानंद सरस्वती सदगुरु से ही करो। उनका तीर्थ और भभूत सेवन करो वे ही तुम्हें मौत के मुँह से लौटा सकते है।
हेमराज ने कहा, वे और तुम अलग नहीं। एक ही हो।और अपनी बीमारी दूर करने के लिए याचना की। और कहा कि,जब तक मैं पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाऊँगा आप यहाँ से न जाइए।
गुरुवर पध्दतीर्थे पातकें त्यांची नाशी ।
कळत असुनही मृत्यू खास त्याचा मनाशी ।।
अधिकृत करी त्याला स्वायुते घ्यावयाला ।
वदत मुखी बरा हो, तीर्थ दे प्यावयाला ।।
मरीज की मृत्यु ज्ञात (मालुम) होने पर भी मरीज को न बताते हुए वैद्य को उपचार करते रहना चाहिए वैसेही उन्हे श्री वासुदेवानंद जी की पादुकाओं से तिर्थ दिया और झोली में से भभूत निकालकर दी। ठीक हो जाओगे ऐसा आशिर्वचन देकर घर जाने के लिए कहा।
हेमराज ने कहा,मुझे यहॉ हररोज आना संभव नही, कृपा करके आपके पवित्र चरण कमल मेरे घर लगाकर मुझे आपके दर्शन का सुख प्रदान करे ऐसी प्रार्थना करता हूँ।
सीताराम महाराज हमेशा उनके घर जाकर औषधियाँ बदलकर देने लगे।
आयुर्मयादा पूर्ण होने से एक दिन पहले हेमराज को बता दिया। और कहा कि भगवान का नामस्मरण करते रहो। पर उतने, और १०-१५ वर्षो तक गुरु सेवा करने की अपनी इच्छा जाहीर की और गिडगिडाकर याचना की।
महाराज अपने निवास स्थान पर पहुँचे। श्री वासुदेवानंद जी की मन-ही-मन प्रार्थना की। उन्होंने प्रकट होकर कहा, सीताराम न होनेवाला भेद मानकर तुम अज्ञानी जैसा आचरण करने लगे हो,मुझे इसका आश्चर्य लगता है। तुम निर्बल नहीं हो पर अज्ञान छोडकर संयम पालन करो। मेरे पिछे बच्चे के समान मत भागो। मैंने सब मामले छोड दिए हैं। तुम जैसा चाहते हो,कर सकते हो। फिर से ऐसी जिद मत करो। तुम्हें सारे अधिकार दिए हैं। तुम जैसा चाहोगे वैसा ही होगा। और वे अदृश्य हो गए।
इधर सीताराम महाराज हेमराज की मृत्यु नजदीक आने से,उन्हों कैसे जीवित रखें इस विचार में मग्न होने से उन्हें आने में देर हुई। बाद में मन में निश्चय करके वे सेटजी के पास जाने निकले।
अंतिम दिन आया। सेटजी बहुत बेचैन होने लगे। बिच में बेहोशी आने लगी। सीताराम महाराज न आने से और बेचैन हुए और बार बार उन्हें बुलावा भेजा।
थोडी देर बाद वे आए और सेठजी को बेहोश अवस्था में देखकर भभूत लगाई। और कान में जोर से महाराज आने की बात बताई। तब वे होश में आए। महाराज के पूछने पर कि स्थिति कैसी है। जवाब दिया कि मुझे ले जाने के लिए कोई दिव्य पुरुष आए हैं और मुझे फंदे से बाँध लिया है। उनका वर्णन करने के लिए महाराज ने कहा,सेठजी बोले, वे शिव चिन्ह धारण किए हुए हैं। महाराज ने कहा, वे शिव-दूत हैं। तुम्हारा दक्षिण की ओर का यम मार्ग रुका हुआ है, तुम खुशकिस्मत हो। बाद में शिवदूतों से महाराज ने संभाषण किया और बताया कि, एक घडी इसे मुक्त करो अथवा रुक जाओ। पर शिवदूत बोले, हमें भी पत्रिका का ज्ञान है। आज ही उनका अंतिम दिन है। महाराज ने शिवदूतों से कहा, हमारे विचार से वह झूठ है। शिवदूतों ने कहा, झूठ कैसे है, हमें दिखाओ, तब हम इसे मुक्त कर देंगे। इस प्रकार संभाषण हुआ।
महाराज ने हेमराज से पूछा, गुरु सेवा के लिए तुम्हारी जिने की इच्छा है? हेमराज के हाँ कहने पर, महाराज ने निर्धार पूर्वक कहा, आज मैं तुम्हारी वह इच्छा पूरी करुँगा। मेरी जिंदगी के सोलह वर्ष मैं तुम्हें अर्पण करता हूँ।
उसे उठाकर बिठाया। उसे दाहीना हाथ सामने रखने के लिए कहा। मैं अपनी शेष सोलह वर्ष की जिंदगी हेमराज को अर्पण कर रहा हूँ। इस प्रकार संकल्प करते हुए अपने पंचपात्र का जल लेकर हेमराज के हाथपर छोड दिया। इसके बाद शिवदूतों से कहा किं अब इसका जीवन-लेख देखिए। उनके देखने पर उन्हें दिख पडा कि हेमराज का आयुर्मान १६ वर्षो से बढ गया है। सीताराम महाराज ने शिवदूतों का लेख झूठा साबित किया और उनसे कहा कि अब तुम उसे पाश मुक्त करो। इतनी उनकी श्रेष्ठता थी।
शिवदूतों ने तुरंत उसे पाश मुक्त किया। महाराज को प्रणाम किया। और कहा १६ वर्षो के बाद फिर से उसे ले जाने आएँगे। महाराज ने उनसे कहा, तब तक वासुदेव भक्त वासुदेव ( विष्णू ) स्वरुप नहीं हुआ तो आइए और इसे शिवरुप बनाइए।
हेमराज के बहाने सीताराम महाराज जी ने अपना अवतार पूरा किया। हेमराज की समझ में नहीं आ रहा था कि महाराज के ऋण से कैसे मुक्त हो जाऊँ। उसने कहा,———-
खरा तेजस्वी तूं अससी । जगीं अज्ञान हरणा ।। खरा ओजस्वी तूं भजक । जन मृत्यु प्रहरणा ।।
खरा दाता तुंचि वितरशी । निजायुष्य सगळे ।। तुला सीतारामा स्मरती । तदहंता पुरी गळे ।।
हेमराज ने सीताराम महाराज जी से जैसा कहा था उसी प्रकार सिताराम महाराज के सामने ही,श्री वासुदेवानंद सरस्वती और श्री दत्तमंदिर की पुजा अर्चा नैवेद्य आदि खर्च के लिए सर्वे नं ८ की जमिन, एक पुष्षवाटिका, पचास हजार रुपयोंकी कपडें की दुकान श्री गुरुचरण मे अर्पण करने का सत्कार्य किया। इससे सिताराम महाराज जी भी प्रसन्न हुए। सिताराम महाराज जी ने हेमराज को अभिवचन दिया था कि, आप पीडा से मुक्त हो जाने तक मै यहॉँ रहँगा बाद मे चला जाउंगा। इसकी पुर्तता उन्होंने अपनी जिंदगी उसे देकर की थी। वे चले गए। सब लोगों को बुरा लगा। हेमराज भी नहीं कह सकता था कि अब तुम चले जाओ।
हुसंगाबाद जाने के लिए महाराज निकले पर रास्ते में बहुत थकावट आई। बुखार भी चढा। फिर भी धीरे धीरे चलते हुए हुसंगाबाद से बढनेरी आए।
बढनेरी में एक भक्त ने दी हुई छाँछ लेकर उसे आशिर्वाद दिया। और वट वृक्ष के नीचे बैठे रहे। शेष जीवन का दान करने से अब शरीर शक्तिस्मरण करते हुए उत्तराभिमुख बैठकर समाधिस्त हुए और योग मार्ग से सच्चिदानंद ब्रह्मपद में विद्यमान हुए।अपना अवतार और कार्य पूरा करके वे ब्रह्मानंद में विलीन हो गए वह दिन था, फाल्गुन शु. ८ सके १८४०।
।। श्री सदगुरु श्री सीताराम महाराज टेंब्ये यांची आरती ।।
जयदेव जयदेव जय सीतारामा । भाविक जन विश्रामा गुरुवर सुखधामा ।।धृ०।।
माणग्रामी जन्मुनि भू पावन करिशी । श्री वासुदेव गुरुची पदसेवा वरिशी ।।
प्रेमा अखंड गुरुचा अंतरि तू धरिशी । निजबोधें शिष्यांचे संसृतिमय हरिशी ।।१।।
तूं राजयोगी वैभव शोभविशी अंगी । विषयी विरक्त,रंगुनि रहासी निजरंगीं ।।
तीर्थावळि फिरलासी राहुनि गुरु संगी । केले यज्ञात विप्रसंतर्पण जंगी ।।२।।
मोहाध्वांतदिवाकर तूं ब्रह्मचारी । अदभूत तव महिमा मृतसंजीवनकारी ।
भजकालागी अर्पिशी पुरुषार्थहि चारी । शंकर विनवी सदया सत्वर मज तारी ।।३।।
जयदेव जयदेव जय सीतारामा । भाविक जन विश्रामा गुरुवर सुखधामा ।।धृ०।।