शके १८३३वैशाख शुद्ध चतुर्दशी को उस साध्वी की आत्मा अनंत में विलिन हुई| तेरह दिनों तक पत्नी के सारे औध्वर्दहिक विधी पूरे हुए और उसके बाद तत्काल ‘अनाश्रमी न तिष्ठेत’ के शास्त्र वचन के अनुसार स्वामीजीने संन्यास ग्रहण किया | (जेठ शुद्ध १३) संन्यास धर्म के अनुसार तीन दिनों से अधिक एक जगह पर न रहने का संकेत है| केवल चातुर्मास्य कालावधि में इस नियम में छूट रहती है| संन्यासियों का चातुर्मास्य दो महीनों का होता है| यह आषाढ पोर्णिमा (गुरूपूर्णिमा ) से भादो पूर्णिमा तक होता है| उसी प्रकार इस वक्त प्राय: नदी के किनारे रहने का संकेत है| इसलिए स्थान तथा प्रदेश के साथ साथ नदी का ठिकाना भी लिखा है| साथ साथ उस वक्त की सामाजिक बातें, परिवेश के बारे में जानकारी मिलें इसलिए शक संवत के साथ इ.स.का भी जिक्र किया है| इस काल में एक जगह पर रहने का मिलने से अधिक से अधिक स्तोत्र तथा ग्रंथों की रचना महाराज द् वारा हुई| कुछ मिलकर सारा वाङमय लगभग पाँच हजार द्वारा हुई| कुल मिलकर सारा वाङमय लगभग पाँच हजार पृष्ठों का होगा| महाराज के चातुर्मास्य स्थानों की यात्रा पूरे भारत में (पैदल और टेंब्ये स्वामीजी होने से बिना जूतों से) की है|
अ.क्र. | स्थान व प्रदेश | नदी | शके | इ.सन |
१ | श्री क्षेत्र उज्जयिनी, म.प्र. | क्षिप्रा | १८१३ | १८९१ |
२ | श्री क्षेत्र ब्रम्हावर्त, उ.प्र. | गंगा | १८१४ | १८९२ |
३ | श्री क्षेत्र हरीव्दार, उ.प्र. | गंगा | १८१५ | १८९३ |
४ | हिमालय अज्ञात स्थान | गंगा | १८१६ | १८९४ |
५ | हिमालय अज्ञात स्थान | गंगा | १८१७ | १८९५ |
६ | श्री क्षेत्र हरिद्वार, उ.प्र | गंगा | १८१८ | १८९६ |
७ | पेटलाद, म.प्र. | मही | १८१९ | १८९७ |
८ | तिलकवाडा, गुजरात | नर्मदा | १८२० | १८९८ |
९ | श्री क्षेत्र व्दारका, गुजरात | पश्चिमसागर | १८२१ | १८९९ |
१० | चिखलदा, म.प्र. | नर्मदा | १८२२ | १९०० |
११ | महत्पूर, म.प्र. | क्षिप्रा | १८२३ | १९०१ |
१२ | ब्रम्हावर्त, उ.प्र | गंगा | १८२४ | १९०२ |
१३ | ब्रम्हावर्त, उ.प्र | गंगा | १८२५ | १९०३ |
१४ | ब्रम्हावर्त, उ.प्र | गंगा | १८२६ | १९०४ |
१५ | नरसि, महाराष्ट्र | कयाधू | १८२७ | १९०५ |
१६ | बडवाह, म.प्र. | नर्मदा | १८२८ | १९०६ |
१७ | तंजावर (संध्यामंडप), तामिळनाडू | कावेरी | १८२९ | १९०७ |
१८ | मुक्त्याला, आंध्र. | कृष्णा | १८३० | १९०८ |
१९ | पवनी, महाराष्ठ्र | वैनगंगा | १८३१ | १९०९ |
२० | हावनूर,कर्नाटक | तुंगभद्रा | १८३२ | १९१० |
२१ | कुरवपूर(कुरुगड्डी), कर्नाटक | कृष्णा | १८३३ | १९११ |
२२ | चिखलदा, म.प्र. | नर्मदा | १८३४ | १९१२ |
२३ | श्री क्षेत्र गरुडेश्वर, गुजरात | नर्मदा | १८३५ | १९१३ |
तेइसवाँ चातुर्मास्य होने के बाद श्री.प.प.टेंब्ये स्वामी महाराजी का निवास श्री क्षेत्र गरुडेश्वर में ही था| सेहत बार बार बिगडती थी| आखिर चौबिसवे चातुर्मास्य से पहले जेठ अमवास्या समाप्त होकर प्रतिपदा शुरू होते ही स्वामीजी उठकर बैठने को उताविल हुए|सिद्धासन लगाकरभगवान के सम्मुख होकर आसन लगाकर उपदेश किया|प्राणायाम से साँस रोककर दिर्घ प्रणव उच्चारण किया और शांत हुए| वह दिन था, मंगलवार आषाढ शुद्ध प्रतिपदा शके१८३६,आनंदनाम संवत्सर आर्द्रा नक्षत्र, उत्तरायण|श्री समाधि लिन हुए| यतिश्रेष्ट संतशिरोमाणि का जन्म आनंदनाम संवत्सर पर हुआ और उन्होंने समाधि स्वीकार की वह भी आनंदसंवत्सर पर, इ.स.२३जून १९१४ के दिन|