मुंबई के श्रीमान तालचेरकर जी की भांजी की शादी इंदौर के राजपुत्र तुकोजीराव होळकर जी के साथ तय हुई थी। परंतु वे इग्लैंड चले गए। छह महीने होने पर भी उन्होंने कोई पूछताछ नही की। इससे चिंतित तालचेरकर अपनी भांजी को साथ लेकर महाराज का दर्शन करने श्री क्षेत्र नृसिंहवाडी आए। दत्तात्रय पुजारी के साथ उन्होंने महाराज का दर्शन लिया। इंदिरा जी की जन्मपत्री महाराज के पास देकर सारा वृत्तांत उन्हें कह दिया। श्री महाराज जी ने जन्मपत्री देखते ही कहा, इसमें राजयोग ही नहीं है फिर शादी कैसे होगी। सुनकर इंदिरा और मामी चिंताग्रस्त हुए। लेकिन पुजारी विवेकशील तथा चालक थे उन्होंने कहा, महाराज जन्मपत्री आपके हाथ होने पर ऐसा योग क्यों नहीं होगा ? कारण यह कि राज वैभव का योग हो अथवा न होने पर भी आपकी कृपा से राजयोग ही प्राप्त होने के लिए आप कुछ करों यह मानस था। महाराज जी ने इंदिराजी को “इंद्रायणि नमस्तुभ्यं” मंत्र देकर हररोज एकाग्रता से और श्रद्धा से मंत्र जप करने के लिए सुझाया। मंत्र जप शुरु होने के बाद एक महीने में ही उसका असर हुआ कि तुकोजीराव का पत्र आया। वे जल्दी ही फिरसे हिंदुस्तान आए तथा दोनों की शादी हुई। महाराज की कृपा ऐसी होती है यह सुनकर मन खुश होता है। इसी घटना से इंदिरा रानी साहब महाराज की सच्चे मन से भक्त बन गई।

बाद में हर वर्ष महाराज का दर्शन करने माणगांव में आया करती। और वहाँ आंगन साफ करने तथा लीपना, पोतना आदि सेवा करती। महारानी होने के उपरांत भी वे मन:पूर्वक मंदिर का प्रबंध(व्यवस्थापन) देखती। उन्होंने ही श्री दत्तमंदिर का जीर्णोद्धार किया और वैशाख शुक्ल त्रयोदशी शके १४६० ( १३ मई १९३८ ) को श्री दत्त महाराज, श्री देवी सरस्वती, श्री आद्य शंकराचार्य और श्री.प.प.वासुदेवानंद सरस्वती की मूर्तियों की काशी के प.प.ब्रह्मानंद स्वामी जी द्वारा मूर्तिप्रतिष्ठपना की।

श्री स्वामी महाराज का समाधिस्थान गरुडेश्वर, यहॉ भी इंदिराबाई जाती थी। वहाँ भी उन्होंने विश्वस्त संस्था का निर्माण किया। तथा नर्मदा नदी पर घाट बनवाया। वहाँ के विश्वस्त संस्था स्थापन करने के लिए कहा। उस वक्त गरुडेश्वर के न्यासियों में से डॉ.रणजीत भाई भट्ट (सुरत),डॉ. कन्हैयालाल वाणी (अहमदाबाद),वैद्यराज रमेशचंद्र पटवर्धन,श्री कोरांन्ने और मुरलीधर जोशी (बडोदा) आदि न्यासियों ने १९५८ में आकर माणगांव दत्तमंदिर की स्थिति देखी।

इसके बाद वे न्यासी इंदौर गए, महारानी इंदिराबाई होळकरजी से मिले। उन्होंने माणगांव दत्तमंदिर की व्यवस्थापन चलाने के लिए पूँजी (पैसा) न होने से विश्वस्त संस्था बनाकर क्या करेंगे यह भी पूछा। सुनकर महारानी ने तुरंत २२००० (बाइस हजार) रुपयों के शेअर्स श्री प.प.वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज के चरण पर रखकर विश्वस्त संस्था को सौंप दिए। उनसे कहा कि आप जल्दी से जल्दी माणगांव जाकर वहाँ विश्वस्त संस्था स्थापन करें और इन रुपयों के व्याजसे कामकाज शूरु करें।

उसी के अनुसार डॉ. रणजीत भाई भट्ट और वैद्य पटवर्धन साहब जी ने विश्वस्त पजीकरण कार्यालय मुंबई में दिनांक (१३ मई १९६१) के दिन श्री दत्त मंदिर माणगांव नाम से संस्था (मंडल) पंजीकृत की। उसके बाद हर वर्ष गरुडेश्वर के न्यासी माणगांव आकर यहाँ के (स्थानिक) विश्वस्त संस्था का कामकाज देखा करते। कै. विष्णू पांडुरंग माणगांवकर और के.वैद्य जनार्दन श्रीपाद गणपत्त्ये की बिनती से मुंबई स्थित नानेली गाँव के सपुत और स्वामी भक्त कै.श्री.पांडुरंग जिवाजी खांडाळेकर (आरोंदा निलगिरी तेल-उत्पादक) जी ने भक्त निवास के लिए ५ कमरे बाँधकर दिए।

उसके बाद विश्वस्त संस्थाने स्थानिक कमेंटी निर्माण की। इसमें कै वैद्य जनार्दन श्रीपाद गणपत्त्ये, कै.मोहनराव रांगणेकर और श्री.कमलाकर विश्वनाथ साधले (मनोहर भाऊ) तीनों थे। इस स्थानिक कमेटी ने कर बृहस्पति वार को आरती, प्रदक्षिणा (परिक्रमा),पालकी आदि उपासनाओ का प्रारंभ किया। पालकी हर महीने वद्य पंचमी (प.प.स्वामी महाराज जयंती तिथि के दिन) के दिन शुरु की गई। (चातुर्मास्य छोडकर) इस पालकी उत्सव को शिबिकोत्सव कहा जाता है। (शिबिका- स्थानिक कमेटी द्वारा पास-पडोस के ब्रह्मवृंद तथा गाँव के भक्तों को साथ लेकर, दत्तमंदिर के चारों ओर की जमिन साफ-सुथरी रखना, आँगन बनाना, मेंड बनाना तथा लिपना-पुतना, उत्सव के लिए मंडप बनाना आदि काम किए जाते। सबका सहयोग लिया जाता। तेल, दिया, अगरबत्ती खर्च के लिए मात्र ५० पैसे (आठ आने) चंदा महीने लिया जाता।

श्री दत्त मंदिर जीर्णोद्धार (वैशाख शुद्ध १३) वर्षगाँठ से पहले सात दिन इसके कारन (बहाने) गाँव के भक्त मंडली तथा ब्रह्मवृंद के सहयोग से स्थानिक कमेटी ने “ दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा ” मंत्र का अखंड नाम सप्ताह शुरु किया। इस उत्सव के लिए गाँव से भिक्षा माँगकर आठवें दिन भंडारा (समराधना) किया जाता। स्थानिक कमेटी सदस्थों के साथ स्वामी पाडगांवकर, नारायणराव भोसले, शंकर तामाणेकर, भिसे, काणेकर, साबा धुरी, बाबा धुरी, आदि गाँव की मंडली, दाजी मेस्त्री, कुडतरकर, कोरगांवकर, भर्तू, भिसे, पेडणेकर आदि बाजारवाडी की मंडली और तळीवाडी के भक्त जन इस अखंड नामस्मरण सप्ताह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते। हाथ बँटाते।

इ.स. १९७० से प.पू.श्री नांदोडकर स्वामी यहाँ आने लगे। उन्होंने श्री दत्तमंदिर पर सोने का कलश चढाया। और श्री के जन्मस्थान पर श्री की पादुकाओं की स्थापना की। वे हर साल एक यज्ञ का आयोजन करते थे। इससे यहाँ भक्तों गणों की संख्या बढने लगी। उन्होंने भिंक्षा माँगकर पुरानी धर्मशाला का जीर्णोद्धार किया। वैशाख शुक्ल सप्तमी १९७६ में वास्तुशांति की। इसके बाद यहाँ का कार्य पूरा करके दुसरे ही दिन वे स्वर्गवासी हो गए।

इ.स.१९७७ से हर वर्ष एक यज्ञ का आयोजन किया जाता है। पिछले कई वर्षो से गुरुप्रतिपदा का अवसर पाकर माघ महीने में तीन दीनोंका यज्ञोत्सव मनाया जाता है। इसमें हजारों भक्त शामिल होते हैं। इस संस्था के अध्यक्ष श्री. विठ्ठल यशवंत उर्फ आबाजी बांदेकर जी की प्रेरणा और सहयोग से संस्था उन्नति की ओर जा रही है। १९६६ में २१ कमरों का भक्त निवास बँधवाया। सन २००२ में श्री स्वामीजी का नया जन्मस्थान बँधवाया। महाप्रसाद के लिए अन्नपुर्णा भवन का निर्माण किया गया। २००७ में श्री के जन्मस्थान के पास वेदपाठशाला और पुजारी निवास के लिए इमारत और यतिओं के लिए कुटि बनाने का संकल्प विश्वस्त संस्था ने लिया है। स्वामी महाराज की कृपा और आप जैसे उदार भक्तों के सहयोग से यह संकल्प पूर्णता की ओर पहुँच रहा है।

महाराज जी द्वारा माणगांव छोडने पर और समाधिस्त होने पर महाराज चैतन्यरुप में माणगांव में विद्यमान हैं। श्री क्षेत्र माणगांव आनेवाले, मन ही मन सेवा करनेवाले, सकंट समय में पुकारनेवाले भक्तों को महाराज इसका अनुभव देते हैं। छोटी-छोटी नदियाँ, नाले जिसप्रकार सागर में जाकर मिलते हैं, उसी प्रकार महराज का जन्मस्थान दत्त संप्रदाय का मूलस्त्रोत है। आज सभी संतमंहत, विदवान महाराज का दर्शन करने माणंगाव आते हैं।

विनम्र आवाहन

ऐसे श्री दत्तरुप महापुरुष का जन्मस्थान माणगांव है।जीवन के शुरु के ३५ वर्ष इसी गाँव में निवास करते रहे। उनके निवास से माणगांव तीर्थक्षेत्र बन गया। आधुनिक सुख-सुविधाओं के कारण दूर से आनेवाले लोगों का भक्तजनों का आना-जाना बढ गया। मंदिर के पास श्री अन्नपूर्णा भवन तथा भक्त निवास आज हैं। परंतु भक्तोंके धर्मशाला की जगह पर नई प्रशस्त दुमजले की अन्नपूर्णा भवन इमारत का काम पूरा होने आया हैं। श्री.प.प.वासुदेवानंद सरस्वतीजी की पत्नी का नाम सौ.अन्नपूर्णा था। इस लिए उनका स्मरण करने हेतु इस अन्नदान विभाग के इमारत का नाम अन्नपूर्णा भवन निश्चित किया गया हैं।

स्वामीजी का जीवन का आश्रम लेकर उपर्युक्त वास्तु के सिवाय मंदिर के परिसर में वेदपाठशाला तथा निवासी कमरें, यतियों के लिए निवास स्थान बँधवाने का नाम श्री के जन्मस्थान के पास जारी है। इस काम के लिए आपसे सहायता की प्रार्थना है। गोशाला, श्री निर्मला माता का मंदिर, पुजारियों के लिए निवास, मंदिर के पास में पर्वत पर स्वामीजी की तपस्या से पुनित गुफा की ओर जाने के लिए रास्ता बनाना आदि विविध काम करने हैं। स्वामीजी की कृपा आशिर्वचन से यथासमय सारे काम पूरे हो जाएँगे लेकिन आप सभी स्वामीजी के प्रति कृतज्ञ, ऋणबुदधि की भावना प्रकट करने के लिए सहयोग प्रदान करें। आपका योगदान आर्थिक रुप में अथवा वस्तुरुप में या सेवारुप में भी अपेक्षित है।

आर्थिक योगदान श्री दत्तमंदिर माणगांव जिला सिंधुदुर्ग इस नाम से नकद / धनादेश / ड्राफ्ट अथवा मनिऑर्डर दवारा दे सकते हैं।

श्री. दत्तमंदिर माणगांव
मु.पो.माणगांव ता.कुडाळ जि.सिंधुदुर्ग
महाराष्ट्र ४१६५१९
दूरध्वनि (०२३६२) २३६२४५, २३६०४५

संगणकीय पता- www.shreedattamandirmangaon@gmail.com
संकेत स्थल – www.tembyeswami.in

माणगांव के श्री दत्तवंदिर को जरुर भेंट दे। कार्य देखिए। आपको मनसे सहभोग देने की इच्छा हुई तो योगदान दीजिए। स्वामीजी के आशिर्वाद आपके साथ हैं।