सुगुणोपासना, भजन तथा भक्ति

  • सुगुण ईश्वर की उपासना करके मनुष्य को कृतार्थ होना चाहिए। सगुण उपासना के बिना ब्रम्हसाक्षात्कार नही होगा। जिस प्रकार राजा को अपने मुहर और कानून पर अभिमान होता है, वैसे ही ईश्वर को अपने सगुण रूप और वेदशास्त्र पर अभिमान है। मुहर-छाप का मतलब राजा नहीं होता फिर भी मुहर – छाप के बिना राजा का कार्य चल नहीं सकता और राजा के बिना मुहर- छाप का कोई महत्त्व नहीI प्रजाजनों से राजा के कानून का पालन होने पर जिस प्रकार राजा को समाधान मिलता है, उसी प्रकार का संतोष शास्त्र नियम पालने पर ईश्वर को मिलता है। इसलिए शास्त्र आज्ञा का पालन करने, ईश्वर की सेवा करें और अपना हित साध्य कर लें।
  • आजीवन ईश्वर और गुरू की पुजा करनी ही चाहिए।
  • ग्रंथ पठन करते समय वह प्राकृत का अथवा संस्कृत का हो ।
  • अर्थात उसके बाह्यांग के बारे में न सोचकर अर्थ की ओर ध्यान रखें। कलियुग में आचारधर्म नहीं के बराबर होने से केवल वेदपठन से कुछ उपयोग नहीं होता। परंतु साधुपुरूषों दवारा रचित प्रासादिक प्राकृत ग्रंथो का बहुत उपयोग हो सकता है। श्री ज्ञानेश्वरी, श्रीनाथ भागवत तथा श्री दासबोध आदि प्रासादिक ग्रंथ है। उसके नित्य पठन से मन की शुद्धि होगी, भक्ति का निर्माण होगा ओर अंत में मुक्ति मिल जाएगी।
  • ईश्वर की सेवा अनलभाव से करें। एकता से गहकर सदैव दिगंबर का भजन करें।

सभी उपदेश का सारांश

  • मुक्ति का लाभ प्राप्त करना ही मनुष्य जल का कर्तव्य है।
  • उसके लिए पहले मन स्थिर हों इस उद्देश से धर्म का यथाशास्त्र आचरण होना चाहिए।
  • वेदांत का श्रवण, मनन निदीध्यासन नित्यता से करें।
  • महत्त्वपूर्ण है कि ध्यानपूर्वक श्रवण से मन का लालच कम होगा।
  • सात्विक प्रवृत्ति से ही मनुष्य की उन्नति होती है।
  • सात्विक प्रवृत्ति होने के लिए आहार हित, मित तथा मेध्य अर्थात पवित्र रहने पर ध्यान देना चाहिए।
  • अपनी प्रकृति (स्वभाव) सात्विक होने के लिहून हैं, स्वधर्म पर दृढ श्रद्धा, रखकर स्नान संध्या, देवपूजा, पंचमहायश – समय पर करना, अतिथी सत्कार, गोसेवा, माँ – पिता की सेवा अपने दवारा हो जाना, कथा किर्तन, भजन, पुराण आदि का श्रवण होना, सबके साथ –मिठा बोलना, दुसरों का नुकसान होने की बात न करना, महिलओं ने ससुराल में रहकर सास-ससुर तथा अन्य बडे – बूंढों की आज्ञा पालन तथा पति की निष्ठापूर्वक सेवा करना आदि गुणों का अपने में संचय होना। अपना स्वभाव सात्विक बनने के ये अनिवार्य हैं।
  • आजीविका के लिए व्यापार,खेती, नौकरी अथवा कोई भी पेशा करने पर भी वेदविहित कर्म और गुरू आज्ञा पालन करना नही छोडना चाहिए।
  • स्वकर्म करने से ही मन शुद्ध होता है।
  • मन शुद्ध होने से उपासना स्थिर होती है।
  • उपासना स्थिर होने से मन को शांति प्राप्त होती है।
  • और मन की चंचलता रूकने पर आत्मज्ञान प्राप्त होता है। इसप्रकार का आचरण जिसका होगा वह अंत में सुखी बनेगा।