श्री. प.प. वासुदेवानंद सरस्वती जी का मूल नाम टेंब्ये हैं। श्रावण कृष्ण पंचमी शके १७७६ (दि.१३-०८-१८५४) को आज के सिंधुदुर्ग जिले के सावंतवाडी के नजदीक माणंगाव में उनका जन्म हुआ। उनके पिताजी गणेश शास्त्री बडे दत्तभक्त थे। उनका बहुतसा समय गाणगापुर में बितता था। इसके कारण बचपन से ही वे अपने दादाजी के सामीप्य में रहते।उनसे ही उन्होंने संस्कृत की प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। आठवे साल उपनयन (यज्ञोपवीत संस्कार) विधी होने के उपरांत प्रातःसंध्या, सायं संध्या, गुरचरित्र पठण नियमित रुप से शुरु हुआ।वेदमूर्ति तात्या भटजी उकीडवे जीके पास वेदाध्ययन शुरु हुआ। इतनी कम उम्र में भी वे सोवळेंके साथ वेद अध्ययन तथा चावल से प्रसाद बनाकर वैश्वदेव करते।आचारःप्रथमोधर्मःके मानो वे स्वयं उदाहरण थे।

पुरोहिता उनका उदरनिर्वाहका पेशा था।इसी बहाने उनका धर्मशास्त्र संबंधि अध्ययन पूरा हूआ। पर यह उनका जीवितकार्य नही था। यथाकाल उन्होंने गृहस्थाश्रम का स्वीकार किया और शास्त्र के अनुसार उसका पालन किया। उनके शास्त्र शुद्ध आचरण से उन्हें मंत्रसिदधियाँ प्राप्त थीं,जिनका उपयोग दुसरो के संकट, दुख दूर करते तथा लोगों को सन्मार्ग मे लगाने के लिऐ करते।

दत्तुप्रभु के दृष्टांत से वे पहली बार नरसोबावाडी गए। वहाँ रहने वाले श्री गोविंद स्वामी जी ने उन्हें श्री दत्त की उपासना करने के लिए कहा उसी दिन श्री दत्तप्रभु दवारा उन्हें श्री दत्त की उपासना करने के लिए कहा । दत्तप्रभु दवारा उन्हें प्रत्यक्ष मंत्रोपदेश मिला इसके बाद स्वामीजी का जीवनं मात्र श्री दत्तप्रभु की आज्ञा से खिला हुआ ब्रह्मकमल सबके जीवन में सुगंध भरनेवाला था।

श्री दत्तात्रय के कहने पर कि मैं स्वयं सात वर्षों तक माणगांव में निवास करँगा,स्वामी जी नरसोबावाडी से माणगांव लौट आए। रास्ते में उन्होंने कागल से पितल की छोटी सात-उँगली ऊचाई की ,दविभूज ,वराभयकर (वरदहस्त),सिद्धासन स्थिति की दत्त मूर्ति भी लाई।माणगांव पहुंचने पर एक मंदिर बनाकर मूर्ति की प्रतिष्ठापना की।श्री स्वामी जी के निवास धिरे-धिरे तीर्थ क्षेत्र बनने लगा। गुरुद्वादशी, श्री दत्त जंयत्ती उत्सव बडे उत्साह से मनाए जाने लगे।

निर्मला नदी का पहला नाम कर्ली था। एक बार वासुदेव शास्त्री नदी के उस पार एक गाँव में गए थे। लौटते समय स्त्री के रुप में स्वयं नदी श्री टेंब्ये स्वामी जी के सन्मुख खडी होकर बोली,मेरा नामकरण कीए बिना मैं आपको आगे बढनें नही दुंगी। तब उन्होंने नदी का नाम र्निमला रख दिया। तब से यह नदी र्निमला नाम से प्रसिद्ध हुई।

ऐसी र्निमला माता का स्मारक बनाने के उददेश्य से निर्मला माता का मंदिर नदी के पास बनाकर वहाँ माता की मूर्ति पर्तिष्टापना करने का निर्णय विश्वस्त मंडल ने लिया है।

यथा समय उनकी पत्नी सौ.अन्नपूर्णाबाई गर्भवती हुई। और एक दिन ईश्वर से स्वामीजी को माणगांव छोडने की आज्ञा मिली। तत्काल पंचायतन का संपुष्ट,भगवान की मूर्ति ,एक लोटा, एकधोती और एक साडीचोली इतना ही साहित्य लेकर वे दोंनो चले गए। शके१८११(इ.स.१८८९)में उन्होंने माणगांव छोडा। पंरतु इस भूमि को स्वामी जी का चरण स्पर्श प्राप्त नहीं हो सका।

माणगांव छोडकर दोनों नरसोबावाडी में आए। थोडे ही दिनों में सौ.अन्नपूर्णा बाई की प्रसूति हुई पर बच्चा मृत स्थिति में पैदा हुआ। ग्रहस्थी का बधंन तोडने वाली एक घटना। पहले से ही विरक्त स्वामीजी औऱ विरक्त बन गए। दत्तप्रभु द्वारा नरसोबावाडी छोडकर उत्तर दिशा की ओर जाने की आज्ञा मिली। मंजिल पर मंजिल तय करते हुए दोनों गोदा तट पर स्थित गंगाखेड में पहुँचे और सौ.अन्नपुर्णाबाई की सेहत बिगड गई। स्वामीजी ने उनकी बहुत सेवा की परंतु कोई सुधार नही हुआ। दृष्टांत हुआ कि आज से चौथे दिन तुम दोनों को ले जाने हम आएँगे,इस पर स्वामीजी ने निश्चय पूर्वक कहा कि अब तक मुझे संन्यास लेना है,मैं नहीं आऊँगा। दृष्टांत के नुसार चार दिनों के बाद शके१८१३ वैशाख शुद्ध चतुर्दशी के दिन उस साघ्वी की आत्मा अनंत मे विलिन हो गई। तेरह दिनों तक पत्नी के सभी औध्वर्दहिक विधि संस्कार पूर्ण हुए और इसके बाद तत्काल ‘अनाश्रमी न तिष्टेत’ इस शास्त्र वचन के अनुसार स्वामी जीने संन्यास ग्रहण किया।

श्री स्वामी महाराज का सांसारिक (ऐहिक) जीवन पर ज्यादा ध्यान नहीं था। परंतु कर्तव्य भावना और भक्ति के बल पर अपनी जिम्मेदारीयाँ बहुत शांति पूर्वक निभाई। उनका यह पूर्व जीवन ही उनके अगले अध्यात्मिक जीवन की पूर्व तैयारी थी। तदनतंर का जीवन कडी तपस्या ,साधना, योगाभ्यास करते हुए वे साधक अवस्था तक पहुँचे।

उज्जयिनी में प.पू.नारायणानंद ,सरस्वती स्वामीजी है, ‘उनके पास जाकर दंड ग्रहण करें।’ इस प्रकार दत्तुप्रभु की आज्ञा हुई। श्री.प.प.नारायणानंद सरस्वती,श्री.प.प.नृसिंह सरस्वती जी के कुल के थे। दंड ग्रहण करने के बाद स्वामीजी का पहला चातुर्मास्य उज्जयिनी में ही हुआ। स्वामीजी के जीवन में कुल २३ चातुर्मास्य हुए। इस समय वे भारत में हिमालय से रामेश्वर तक अथक पैदल ही घुमते रहे। केवल चातुर्मास्य में ही वे किसी एक जगह ठहरते। उस समय लोगों को धर्म-शास्त्र विषय समझाते। शाम के अनुष्टान के बाद पुराण कथन करते। उनके प्रवचन का ढंग बढिया था। सभी विषय सबूत के साथ(सप्रमाण),आसानी से समझाते। इसी निरंतर पद यात्रा में चारों ओर दत्तभक्ति का प्रसार किया। बहुत अनुयायी बनाए। मंदिर निर्माण किए। दैवी साहित्य रचना की। शके १८३५ के चैत्र महीने में वे नर्मदा तट के गरुडेश्नर में पहुँचे। यहाँ से कही होगा एसा स्वामीजी ने कहा । शके १८३६ के वैशाख में उनकी सेहत बिगड गई। शरीर दुर्बल बना। आषाढ शुद्ध प्रतिपदा के दिन,गीता में वर्णित योगी के निर्वाण के अनुसार सिद्धासन लगाकर ,सांस निरोध कर, दीर्घ प्रणवोच्चार के साथ स्वामीजी ने अपने देह का विसर्जन किया। वे परब्रम्ह मां विलिन हो में गए। श्री दत्तब्रम्ह से एकाकार हो गये।यह भारत का लाडला, गुणवान सपूत, महाराष्ट् की निर्मला तट पर जन्मा,कृष्णा की तट पर श्री नृसिहंवाडी की देवभुमि में बडा होकर गुजरात के नर्मदा की तट पर देह छोड दी।

पूरी जिदंगी सदाचरण से लोगों को आदर्श जीवन का प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाया। यइ सत्य है,साथ ही श्री स्वामी महाराज का नाम अमर करमे वाला उनका कार्य है। उनकी साहित्य रचना संस्कृत और दोनों भाषा ओं में उन्होंने रचना की हैं। दत्त पुराण, दत्त माहात्म,दविसाहस्त्री ग्रंथ साधक उपासक, अनुसंधान कर्ता सब के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण तथा उपयोगी ग्रंथ है। हम सबका महतभाग्य है कि यह सब साहीत्य इकट्ठा कर,उनके शिष्य प.पू.श्री गुळवणी महाराज जी ने स्वामीजी के जन्म के जन्म शताब्दि के अवसर पर १२ खंडो में प्रकाशित किया। स्वामीजी के नाम से स्थापित प.पू. श्री वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज प्रबोधिनी संस्था की ओर से उनके साहित्य का अन्य भाषाओं मे अनुवाद,ग्रंथोंके पुनर्मुद्रण करने का कार्य हाथ में लिया गया है।

स्वामीजी का साहित्य और कार्य देखकर उनका वर्णन बिसवीं सदी के शंकराचार्य ऐसा ही करना उचित होगा। श्री संप्रदाय शंकराचार्य़ का अद्वैत वेदांत ही स्वामीजी के साहित्य का मूलाधार है। अद्वैत वेदांत तथा श्री दत्त स्रदाय का समन्वय करने का बहुत बदा कार्य स्वामीजी के साहित्य ने किया है। स्वामीजी का दविसाहस्त्री ग्रथ का विवरण शंकराचार्य जी के ब्रह्मसूत्र के विवरण की याद दिलाता है।स्वमीजा के स्त्रोत्र साहित्य पर शंकराचार्य जी का गहरा असर है। श्री शंकराचार्य तथा स्वामीजी दोंनो संन्यासी,पर उन्होंने कर्म संन्यास लिया था। बल्कि अपने आचरण से उन्होंने प्रेम तथा सेवा का आदर्श समाज के सामने रखा।संन्यास मार्ग ग्रहण कर मोक्ष और कर्म का नेल रखकर जीवन जिने वाले इस यति श्रेष्ट का भारत के सामाजिक मानस नें सम्मान का स्थान है।

प.पू.श्री गुळवणी महाराज, नारेश्वर के श्री रंगावधूत, श्री प. पू. नृसिंह सरस्वती दीक्षित स्वामी महाराज, श्री. प. पू. गांडा महाराज, श्री सीताराम शास्त्री टेंब्ये महाराज, श्री पंडीत महाराज ,क्षिप्रीकर, श्री नानाशास्त्री महाराज तराणेकर आदि स्वामीजी का शिष्य वर्ग है। उन्हें गुरु के स्थान पर मानने वाला बडा शिष्य वर्ग भारत में और भारत के बाहर भी है।उनकी दृष्टि से स्वामी गुरुणांगुरु (ज्येष्ठ)है।