श्री. देवी यक्षिणी ध्यान (संस्कृत की चार पंक्तियाँ)
भक्ताभिष्ट फलप्रदां त्रिनयनां जांबुनदांभ प्रभाम ।
पाणिभ्यां दधतिमसिंच जलजं दुर्धर्ष दैत्यापहाम ।।
मुक्तारत्नसुवर्ण भूषणधरां दिव्यांबरीं सुंदरीम ।
माणग्राम महेश्र्वरीं भगवतीं श्री यक्षिणीं मंगलम् ।।
श्री.प.प.नृसिंह सरस्वती स्वामी महाराज श्री क्षेत्र नृसिंहवाडी में रहते इसवक्त दोपहर के समय भिक्षा के लिए अमरापूर जाते थे। वहाँ ६४ योगिनियाँ उनका स्वागत पूजन करतीं। भिक्षा देती इन योगिनीयोंने अमरापुर न छोडने की प्रार्थना की तब महाराज ने कहा, मै इस उदुंबर मे सुक्ष्म चैतन्यरुप मे निवास करुंगा तथा भक्तोंकी मनोकामनाएँ पूरी करुँगा। उन्होंनी देवी यक्षिणी से कहा-
(मराठी की पंक्तियाँ) –
नाम आहे कोकण, सुंदर वाटिका जाण
त्यांत आहे माणग्राम, वास तेथे करावा
तयेग्रामी टेंब्ये वंश, माझा भक्त गणेश
त्याचे पोटी ईश्वरी अंश, तोचि योगीराज जाणावा
ग्राम आहे ओस, तेथे करावा तू वास
साह्य व्हावे भक्तांस, तपस्वी असती जे कोणी
ब्रह्मराक्षस वेताळ, पिशाच्च गणांचा मेळ
राहे तेथे सर्व काळ, मनुष्यमात्रा हिंसती
कोकण नाम है। सुंदर बगीचा जैसा है। वहाँ माणंगाव नामक गाँव है, वहाँ जाकर निवास करें। उसी गाँव में टेंब्ये कुल में मेरा भक्त गणेश है। (उदर में) ईश्वरी अंश है,वही योगीराज है। गाँव वीरान है,वहीं तुम निवास करें। भक्तों की सहायता करें। साधुओं की सहायता करें। वहाँ ब्रम्हराक्षस,वेताल,पिशाच समूह का सर्वकाल संचार है। मनुष्यों को उनके कारण परेशानियाँ होती है।तुम वहाँ हमेशा के लिए निवास करो।
मेरा अगला जन्म (अवतार) माणगांव में होगा। वहाँ मनुष्य का निवास नहीं। वहाँ ब्रम्हराक्षस,वेताल,भूत,पिशाच का संचार है।वहाँ जाकर उनका प्रंबध करो। मनुष्य वस्ती निर्माण करो। महाराज के अदेस से श्री यक्षिणी माता श्री भगवान शंकर जीके साथ माणंगाव पहुँची।
उसी वक्त एक कुम्हार ईश्वर का चितंन करते-करते माणंगाव में अकेला रहता था। और कोई आदमी एक रात भी रहने के लिए तैयार नही था। श्री देवी यक्षिणी माता ने गाँव देखने के ले शंकर जी को भेज दिया।उस वक्त शंकर जीएक बनिया के रुप में कुम्हार से मिले। सभि सीमाओं का निरीक्षण किया।
(मराठी की दो पंक्तियाँ)-
मध्यग्रामी वैश्यनाथ, अपुले नामी लिंग स्थापित
म्हणे कार्य झाले आता येथ, जाऊ सत्वर गृहाशी
गाँव के मध्य में शिवलिंग स्थापित हुआ। अब कार्य पुरा हो चुका है। माणंगाँव में मध्यवर्ती जगह देखकर शंकर जी ने शिवलिंग की स्थापना की।महादेव मंदीर के सामने ही श्री देवी यक्षिणी का मंदिर है। पूरे देश में यह एक मात्र मंदिर है। शंकर जी ने अपने गण को भेजकर वेताल को बुलाया।वेताल से कहा,श्री देवी यक्षिणी यहाँ निवास करेगी,इसमें गाँव में मनुष्य़ों वस्ती होना जरुरी है।तुम भूतपिशाच का प्रबंध करो।मनुष्यों कोई परेशानी नही होती चाहिए।
धीरे-धीरे मनुष्य वस्ती बढ गई। ग्रामदेवता यक्षिणी माता का गाँव में आगमन हुआ। श्रावण वद्य पंचमी शके १७७६(दि.१३ अगस्त १८५४) में महाराज का जन्म हुआ और माणगाँव उनके जन्म से पावन हुआ।
माणगाँव गाँव की मूल भूमिका श्रीदेवी सातेरी है,इसका अलग मंदिर नजदीक ही है। उसी प्रकार वेताल(वेतोबा) का मंदिर भी एक कि.मी दूरी र है।
चैत्र शुध्द १से१० रामनवमी
आश्विम शुद्ध १ते१० विजया दशमी
कार्तिक शुध्द ५ ते १२ सुप्ताह
त्रिपु री पौर्णिमा का दुसरा दिन- वार्षिक मेला
माघ वद्ध ८ वर्धापन दिन
श्री देवी यक्षिणी मंगलाष्टके
उद्यत्पूर्ण सुधांशु कोटि धवलां, विद्युल्लसव्दाससाम्।सौवर्णाभरणां प्रसन्न वदनामुत्तुंग वृक्षोरुहाम्।।
पीनश्रोणि तट प्रवेक रशनां शक्तिं परां शांभवीम्। शस्त्रीपात्रकरां स्वभक्तवरदां नित्य भजे यक्षिणीम्।।१।।
भ्राजत्कर्ण विभूषणच्छविलसग्दंडांच शस्त्रींतथाs मंत्रं संदधतीं द्विबाहु मनिशं शुभ्रांशु कोटि प्रभाम्।।
बिभ्राडंबर धारिणी प्रविकसद्वत्क्रांबुजां मंडिताम्। सेवेहं शिवशक्तिमीष्ट वरदां श्री यक्षिणी मंगलम्।।२।।
या विद्येत्यभिधीयतेश्रुतिपथे शक्तिः सदाद्यापरां। सर्वज्ञा भवबंध छित्तिनुपुणा सर्वाशये संस्थिता।
दुर्ज्ञेया सुदुरात्मभिश्च मुनिभिः ध्यानास्पदं प्रापिता। प्रत्यक्षा भवतीह सा भगवती श्री यक्षिणीं मंगलम्।।३।।
अद्यांह तव पाद पंकज परो गोदान गर्वेण वै। धन्योsस्मिति यथार्थ वाद निपुणो जातः प्रसादाच्चते।।
याचेत्वां भवभीतिनाशचतुरां मुक्ति प्रदांचेश्वरीम्। हित्वामोहकृतं महार्ति निगडं श्री यक्षिणीं मंगलम्।।४।।
या वाचस्पतिना सुरेंद्र पुरतो नाके सदास्तूयते।।
भू लोके ऋषयः शुभं सुचरितं यस्याश्चिरं पठ्यते। सा देवी प्रकारोतु नो नवरतं श्री यक्षिणीं मंगलम्।।५।।
श्री देवी यक्षिणी मां की आरती
महिषाख्या सुरमर्दिनी दाक्षायणि माये। माणग्रामस्थ जनोध्दारिणी हर जाये।
भक्तानुग्रह कारिणी सर्वामरपुज्ये। सकलारिष्टे निरसुनि पालय मा सदये।
जय देवी जय देवी श्री यक्षिणी अंबे। आरती ओवाळु तुज हत दैत्य कदंबे।।धृ।।
दुर्गे दृष्कृत नाशिनीं दुर्गासुर हरणे । दुष्ट निबर्हिणी दुस्तर भवनिधी जलतरणे।
दु ख दवाग्नि प्रशमनि दुर्ज्ञेया चरणे । दुर्लभ दर प्रदायिनी वंदे तव चरणे।
जय देवी जय देवी श्री यक्षिणी अंबे। आरती ओवाळु तुज हत दैत्य कदंबे।।1।।
त्रिजगज्जनि भवानि देवी जखुबाई । ग्रामस्वामिनी भगवती आमुची तु आई।
तुजवाचुनि मज रक्षक कोण जगी नाही। म्हणुनि दिवाकर विनवि वंदुनि तव पायी।
जय देवी जय देवी श्री यक्षिणी अंबे । आरती ओवाळु तुज हत दैत्य कदंबे।।2।।
।। श्री यक्षिणी माता की जय ।।